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जयशंकर प्रसाद
जन्म : 30 जनवरी 1890, वाराणसी

मृत्यु : 14 जनवरी, सन् 1937, वाराणसी

श्री जयशंकर प्रसाद का जन्म एक अत्यन्त समृद्ध और प्रतिष्ठित वैश्य-परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री देवीप्रसाद जी तम्बाकू और सुंधनी का व्यापार करने के कारण वाराणसी में ‘सुंधनी साहू’ के नाम से प्रसिद्ध थे। परिवार के सात्विक और धार्मिक संस्कारों का ‘प्रसाद’ जी के ऊपर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। वे एक अत्यन्त संवेदनशील बालक थे। पिता के साथ उन्होंने कई बार धार्मिक और ऐतिहासिक तीर्थों की यात्राएँ भी कीं। यद्यपि ‘प्रसाद’ जी ने स्कूल की नियमित शिक्षा केवल आठवें दर्जे तक प्राप्त की थी किन्तु उन्होंने घर पर भारतीय इतिहास, संस्कृति, दर्शन, साहित्य और पुराण-कथाओं का गहरा अध्ययन किया। साथ ही उन्होंने संस्कृत, अंग्रेजी और पालि-प्राकृत भाषाओं का भी निष्ठापूर्वक अध्ययन किया। उनका सारा साहित्य उनकी इसी गहन अध्ययन-शीलता का प्रतिफल है। उनके साहित्य की पृष्ठ भूमि में जो एक गहरी करुणा और ऊर्जास्थित आशावाद का परलोक है, इतिहास और दर्शन की गुत्थियों को भेदकर, मानव जाति और संसार के प्रति जो एक असंभ्रमित आस्था का तेवर है; वही उन्हें एक महान लेखक के रूप में प्रतिष्ठित करता है।

लेखक प्रसाद जी के निर्माण में उनके व्यक्तिगत जीवन की दुर्घटनाओं का कम योगदान नहीं है। 11 वर्ष की अवस्था में पिता की मृत्यु, 17 वर्ष की अवस्था में बड़े भाई श्री शंभुरत्न जी की मृत्यु से घर-गृहस्थी का सारा भार अल्पायु में ही उनके ऊपर आ पड़ा। लेकिन जीवन की कटु यथार्थताओं ने उन्हें साहित्य-रचना से कभी भी विरत नहीं किया; बल्कि इससे ठीक प्रतिकूल उनके लेखन को और अधिक धार-दार बनाया। उन्होंने अपने निजी यथार्थ-जीवन और रचनात्मक कल्पना-लोक में अद्भुत संगति स्थापित की। इसी के फल-स्वरूप उन्होंने साहित्य में एक नवीन ‘स्कूल’ और जीवन-दर्शन की स्थापना की। वे ‘छायावाद’ के संस्थापकों और उन्नायकों में सर्वश्रेष्ठ हैं।

अपने 48 वर्षों के छोटे से जीवन-काल में उन्होंने कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी और आलोचनात्मक निबन्ध, सभी विधाओं में समान रूप से उच्चकोटि की रचनाएँ प्रस्तुत कीं। उनका संपूर्ण साहित्य आधुनिक हिन्दी साहित्य का प्रामाणिक दर्पण है, जिसमें अतीत के माध्यम से वर्तमान का चेहरा झाँकता है।

कृतियाँ : उपन्यास, कहानियाँ एवं निबंध, नाटक एवं एकांकी, काव्य आदि

उपन्यास : कंकाल, तितली एवं इरावती।

कहानी संग्रह : 1. छाया : तानसेन, चंदा, ग्राम, रसिया बालम, शरणागत, सिकंदर की शपथ, चित्तौर उद्धार, अशोक, गुलाम, जहाँनारा मदन-मृणालिनी 2. प्रतिध्वनि : प्रसाद, गूदड़ का साईं, गुदड़ी के लाल, अघोरी का मोह, पाप की पराजय, सहयोग, पत्थर की पुकार, उस पार का योगी, करुणा की विजय, खँडहर की लिपि, कलावती की शिक्षा, चक्रवर्ती का स्तम्भ, दुखिया, प्रतिमा, प्रलय 3. आकाश-दीप आकाश-दीप, ममता, स्वर्ग के खंडहर में, सुनहला साँप हिमालय का पथिक, भिखारिन, प्रतिध्वनि, कला, देवदासी, समुद्र-संतरण, वैरागी, बनजारा, चूड़ीवाली, अपराधी, प्रणय-चिह्न, रूप की छाया, ज्योतिष्मती, रमला, बिसाती 4. आँधी : आँधी, मधुआ, दासी, घीसू, बेड़ी, व्रत-भंग, ग्राम-गीत, विजया, अमिट-स्मृति, नीरा, पुरस्कार 5. इन्द्रजाल : इन्द्रजाल, सलीम, छोटा जादूगर, नूरी, परिवर्तन, सन्देह, भीख में, चित्रवाले पत्थर, चित्र-मंदिर, गुंडा, अनबोला, देवरथ, विराम चिह्न, सालवती 6. चित्राधार- (अ) विविध : उर्वशी, वभ्रुवाहन। (ब) कथा-प्रबन्ध : ब्रह्मर्षि, पंचायत, प्रकृति सौन्दर्य, सरोज, भक्ति।

निबन्ध : चम्पू, कविता रसास्वादन, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, कवि और कविता, हिन्दी में नाटक का स्थान, काव्य और कला, रहस्यवाद, रस, नाटकों में रस का प्रयोग, नाटकों का आरंभ, रंगमंच, आरंभिक पाठ्यकाव्य, यथार्थवाद और छायावाद, कवि निराला की कविता (गीतिका का अभिमत), प्राचीन आर्यावर्त—प्रथम सम्राट इंद्र और दशराज्ञ युद्ध, आदि पुरुष।

नाटक एवं एकांकी : उर्वशी चम्पू, सज्जन, प्रायश्चित्त, कल्याणी परिणय, करुणालय, राज्यश्री, विशाख, अजातशत्रु, जन्मेजय का नाग-यज्ञ, कामना, स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य, एक घूँट, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, अग्निमित्र।

काव्य-संकलन : चित्राधार, प्रेम पथिक, करुणालय, महाराणा का महत्त्व, कानन कुसुम, झरना, आँसू, लहर, कामायनी।

1. प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध : इस पुस्तक में प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियों और निबन्धों का संकलन उपस्थित है।
2. प्रसाद के संपूर्ण उपन्यास : इस पुस्तक में प्रसाद के संपूर्ण उपन्यास प्रस्तुत किये गये हैं।
3. प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य : इस पुस्तक में प्रसाद की सम्पूर्ण कविताओं का संकलन उपस्थित है।
4. प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी : इस पुस्तक में प्रसाद के सम्पूर्ण नाटकों एवं एकांकियों का संग्रह उपस्थित है।
5. प्रसाद रचना संचयन : इस पुस्तक में प्रसाद के श्रेष्ठ काव्य, नाटक, कहानियाँ, निबन्ध, और उपन्यास आदि का संकलन प्रस्तुत है।

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धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण पर आधारित उपन्यास...   आगे...

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कंकाल' भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्‌घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़नेवाले धर्माचार्यों, समाज- सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज है   आगे...

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यह कृति भले ही पाठकों को गहरी रसमग्नता का संतोष न दे पर 'कामायनी' की समझ में अनेक भ्रान्तियों का निवारण करेगी और उसकी गहन अर्थ-व्यंजनाओं के उद्घाटन में मददगार होगी - व्युत्पत्यर्थ और दार्शनिक अनुषंगों की दृष्टि से   आगे...

 

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